Saturday, August 8, 2015

जद्दोजहद 


सूर्य अपनी ढलान पे था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे लम्बी यात्रा करते करते थक कर चूर हो चुका हो. एक बार फिर से सूर्य की लालिमा बिखरने को तैयार थी. सूर्य की गर्मी एवं रूखेपन को चन्द्रमा अपनी आगोश में समेटकर आओनी चांदनी एवं नमी की छटा बिखेरने के लिए उतावली हो रही थी. धीरे-धीरे सूर्य की लालिमा समाप्त होने को थी. जग अंधकारमय होने की साड़ी तैयारिया लगभग पूरी कर चुका था. इस भयंकर अन्धकार में भी एक छोटी से किरण दिख रही थी. मन में नानाप्रकार की ज्वरभाते हिलोरे मार रहे थे. ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मनन-चिंतन के लिए इस से उत्तम बेला कोई और नहीं हो सकती. रात्रि की पहली पहर अपने पुरे उफान पे थी. सभी अपने अपने शयन कक्ष की ओर पधार चुके थे. सभी की आँखें ओर पलके झपक रही थी. मानो नींद उनको अपनी आगोश में लेने को बेकरार है. बार-बार झपकियों का आनंद ले रहे थे. मानो नींद उन्हें कुछ भी सोचने एवं विचारने का कोई अवसर देना नई चाहती. पर मैंने महसूस किया की मेरे आँखों से नींद कोसो दूर है. मानो वो मुझसे अपनी दुश्मनी निभा रही हो. मन में भिन्न-भिन्न के विचार अटखेल कर रहे थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था की प्रश्नो के वाणसमूहो ने मेरे दिल एवं दिमाग को प्रतिच्छेदित कर रखा है. मन में केवल प्रश्न ही प्रश्न ही उठ रहे थे. परन्तु उन सवालो के जाल से बाहर निकालने वाला कोई सामने न था. अंततः मैंने निश्चय किया- वे सवाल जो मेरे मन के सागर में ज्वारभाते की तरह हिलोरे मार रहे है उन्हें मई स्वयं ही शांत करने की कोशिश करूँगा. विचार भी ऐसे पनप रहे थे की जिसका कोई जवाब देने का प्रयत्न भी करता तो वो तर्क-वितर्क का एक मुद्दा बन जाता. 
                            इन्ही कोशिशो में तीन पहर गुजर गए. आँखों से नींद का सामना अब भी नई हो पाया. कुछ था ऐसा जो दिल को प्रतिच्छेदित कर रहा था. कुछ दर्द है जो तकलीफे पैदा कर रहा है. मन मस्तिस्क को घायल कर रहा है. एक अजीब सा उतावलापन सा है. कुछ है जो बेचैन कर रही है. मन अशांत है. दिल कुछ कहना चाहता है. अपना दर्द काम करना चाहता है. पर कोई सुनने एवं समझने वाला नई दिख रहा. एक खालीपन और अकेलापन सा है. जी चाहता है घर को लौट जाऊं. माँ के आँचल टेल छिप के सो जाऊं. उनको गले से लगा लू और उन्हें छोड़ू ही न. उनसे लिपटा रहू. वो आँखों को निहारकर मेरे दर्द को समझ जायेगी. उस से मुझे कुछ कहने और बताने की जरुरत नई महसूस होगी. हर पल ऐसा प्रतीत होता है जैसे की ऐसी जिंदगी जी रहा हू जो मुझे चाहिए ही नहीं. इस दिखावटी ज़िन्दगी से कब छुटकारा मिलेगा. जहा लोग कहते तो है की तुम्हारे साथ है, पर सिर्फ कहने को. बेहतर है की दुसरो पे उम्मीद रखने से खुद से उम्मीद करो. आपको समझने वाला कोई और नई सिर्फ आप स्वयं है.

Friday, July 31, 2015

हिंदी भाषा - अपनी भाषा ...



साहित्य के इस मंच पे मेरे सभी साथीगण को मेरा सहर्ष अभिवंदन . लम्बे अरसे से मन में ये उद्गार उत्पन हो रहा था की मैं एक ऐसे मंच का सञ्चालन करू जहा पे साहित्य प्रेमी कुछ अध्यन कर सके और अपने विचारो से मुझे भी अवगत कराते रहे. यह मेरा प्रथम प्रयास है की मैं आपलोगो के समक्ष कुछ अच्छी लेखन को पेश करता रहू और अपने विचारो से आपलोगो को अवगत कराता रहू. आज के इस दौर में हिंदी धीरे धीरे प्रासंगिक होते जा रही है और इसका महत्व देशव्यापी रूप पे घटता जा रहा है. आज के इस तकनिकी दौर में अंग्रेजी भाषा ने सभी भाषाओ को विस्थापित कर दिया है. मेरी समझ से ये उचित नहीं है. हम चाहे जिस भी दौर में हो हमें अपनी भाषा का महत्व समझना होगा और इसपे अमल भी करना होगा. हिंदी को मात्र मजबूरी समझ कर ना पढ़े. हिंदी मात्र एक भाषा ही नहीं बल्कि हमारी जीवन शैली को भी प्रदर्शित करती है. हमें अपनी भाषा से प्रेम करना होगा, इसके महत्व को समझना होगा. इसे जीवन क हर अंग में शामिल करना होगा. इसे मजबूरी ना समझे. इसको जीने का प्रयास करे. ये हमारी संस्कृति एवं सभ्यता का परिचायक है. हिंदी को महत्व देकर हमें उन महान हस्ती को श्रद्धांजलि देना चाहिए. विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में हिंदी के विद्यार्थियों की संख्या वक़्त के साथ साथ घटते जा रही है. विकास की ओर अग्रसर होने का तात्पर्य ये नहीं की हम अपनी भाषा का बलिदान कर दे. विकास में हमें हिंदी को भी भागीदार बनाना होगा. इसको जीवन के हर अंग में शामिल करना होगा. हिंदी हम सब की जनक है. हिंदी हमारे जीवन का अभिन्न अंग है. हिंदी के प्रति प्रेम मातृप्रेम के समकक्ष है. आओ सारे मिलकर हिंदी की ओर बढ़े. इसे नई उंचाई प्रदान करे और एक नया आयाम दे. हिंदी के उत्थान के लिए जिन्होंने ने अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया उनके प्रयासों को जीवित रखे और आगे लेकर चले. हिंदी को अपनाने में और प्रेम करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए क्युंकि हिंदी हैं हम और हिन्दुस्ता हैं वतन हमारा.

जय हिन्द, जय हिंदी....